नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

February 28, 2011

विडंबना


कितनी बड़ी विडंबना है ये हमारे देश की , की हम जिस बेटी को पैदा होते ही एक बोझ समझ बैठते हैं उसी बोझ के साथ हम सारी जिंदगी भी बिताना चाहते हैं ! बचपन से लेकर मरने तक वही लड़की अलग -अलग रूप ले कर हमारा साथ भी निभाती चलती है ! जिसके बिना आदमी एक पल भी नहीं गुजार सकता और कुछ लोग उसी बेटी का अपने घर मै आगमन करते ही कभी अपनी मुसीबत , कभी बोझ समझ कर जीते जी मार डालना चाहता है ! कितने नासमझ है वो इन्सान जो इतनी बड़ी हकीकत को नहीं समझ पाते या फिर ये कहो की समझना ही नहीं चाहते और उससे अपना पीछा छुडाना चाहते है ! उनकी नकारात्मक सोच उसका उसके दहेज़ को लेकर सोचने वाली परेशानी और समाज की अन्य कुरीतियों को लेकर उसके साथ जोड़ कर सोचना उसके कमजोर व्यक्तित्व का परिचय ही तो देती है ! और उसकी संगिनी उसके साथ हर हाल मै रह कर भी एसा कभी नहीं सोचती वो हिम्मत से उसका सामना करने को हमेशा तैयार रहती है पर उसे मारने को कभी नहीं कहती ! आदमी क्या इतना कमजोर और आलसी भी हो सकता है की जिंदगी मै जो परेशानी बाद मै आने वाली हो उससे डरकर वो एक एसे मासूम का खून बहा दे जिसने अभी दुनिया मै कदम भी नहीं रखा है ? ये भी तो हो सकता है नहीं एसा हो भी रहा है की वही बेटी आज माँ - बाबा का सहारा बनी हुई है और उनकी परवरिश कर रही है आज बेटियाँ - बेटों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं उसमे इतनी ताक़त है की वो अपने साथ अपने पुरे परिवार को पाल सकने की हिम्मत रखती है !
अब देखो न बेटियां बचपन से ही अपने एहसास को किस कदर बनाये रखती है कभी बहन बन कर भाई का साथ देती है तो कभी सुख - दुख मै माँ - बाप की भावनाओं को समझती है ! और फिर शादी के बाद अपने पति के परिवार को भी वही ख़ुशी देती है और जीवन भर उसका साथ भी निभाती है ! फिर ये सब करके वो एसा कोंन सा गुनाह करती हैं की कुछ के दिलों तक उनकी ये भानाएं पहुँच ही नहीं पाती और उनके दिल मै इनको मारने का ख्याल आ जाता है ! इससे तो यही लगता है की जो भी इसकी हत्या के बारे मै सोचता होगा या तो वो दिमागी तोर से ठीक नहीं होता होगा या फिर उसके दिल मै उसके प्रति कोई भावना ही नहीं होती होगी वर्ना जो इतनी बखूबी से अपना कर्तव्य निभाती हो उसे जन्म लेते ही मार डालने का ख्याल उसके दिल मै कभी नहीं आ सकता !
हमें ही मिलकर इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी नहीं तो एसी बहुत सी मासूम जानें जो जन्म से पहले ही कुचल दी जाती हैं मरती रहेंगी सिर्फ हमारी नकारात्मक सोच की वजह से ही ! हमें अपनी सोच बदलनी होगी जिससे उनपर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सके ! क्युकी अगर बेटियों का आस्तित्व ही दुनिया से खत्म होने लगेगा तब तो धीरे - धीरे सृष्टि का भी तो अंत हो जायेगा क्या ये बात कभी नहीं सोचा हमने क्युकी अकेले बेटे से तो घर को नहीं बनाया जा सकता उसके लिए बेटियों का होना बहुत जरुरी है ! इसीलिए हमें सच्चाई को न झुठलाते हुए उसका सामना करना होगा और बेटियों को भी बेटों की तरह बराबर का सम्मान देना ही होगा ! ये बात कहने में उस वक़्त भी गलत नहीं थी जब बेटियों को न .............के बराबर समझा जाता था की उसका अधिकार तब भी उतना ही था जितना उसने आज अपने हक से हासिल किया है ! और अगर हम ये कहे की अगर आदमी शरीर है तो औरत उसकी आत्मा फिर उनको अलग कैसे आँका जा सकता है ? मेरा कहने का तत्प्राए ये है की दोनों की तुलना एक बराबर ही होनी चाहिए जितना हक बेटे का उतना ही बेटी का भी हो और अगर इनके अनुपात मै एसे ही अंतर आता गया तो वो दिन दूर नहीं जब इस सृष्टि का ही अंत हो जाये ! इसलिए उसके एहसास को समझो और उसे भरपूर प्यार दो , जिससे उसके दिल से प्यार का शब्द ही खत्म न हो जाये और हम अपने इस कृत्य को करके बाद मै पछताए ! इसके लिए हमे उसे और उसके प्यार और बलिदान को समझना होगा और एक सकारात्मक सोच रखनी ही होगी ! जिसे वो सबके साथ अपना ये प्यार इसी तरह बनाये रखने की हिम्मत न खो दे ! बाक़ी आप तो अपने आप समझदार हैं दोस्त !

February 26, 2011

रेखा , रश्मि और वंदना , एक आग्रह , एक निवेदन , एक सोच

तीन सामूहिक बलाग्स में एक के बाद एक तीन महिलाओं को
रेखा श्रीवास्तव जी को LBA का,
रश्मि प्रभा जी को HBFI का और
वंदना गुप्ता जी को AIBA का अध्यक्ष बनाया गया हैं

इन तीन नारियों से आग्रह हैं कि वो इस बात का अवश्य ध्यान रखे कि वो जिस संस्थान मे अध्यक्ष हैं उस संस्थान के बाकी सदस्य कहीं भी किसी भी पोस्ट अथवा कमेन्ट मे किसी भी महिला ब्लोगर का अपमान ना करे ।

वाद विवाद और संवाद मे अगर कहीं भी जेंडर बायस आता हैं यानी किसी भी ब्लोगर को उसके महिला होने पर टंच कसा जाता हैं और बहस पोस्ट पर ना होकर व्यक्तिगत होती हैं तो वो स्वीकार्य नहीं होना चाहिये ।

रेखा , रश्मि प्रभा और वंदना कि ये नैतिक ज़िम्मेदारी हैं कि वो ब्लॉग जगत मे कमेन्ट या पोस्ट मे हो रही ऐसी किसी भी बात पर विरोध प्रकट करे जहां महिला का मजाक बनाया जाता हैं ।

बहुत बार ऐसा देखा गया हैं कि सर्वोच्च पद पर नारी के होने से उस संस्था मे नारी का अपमान ज्यादा होता हैं क्युकी उस संस्था के लोग जानते हैं कि उनकी अध्यक्ष उनके प्रति निर्मम नहीं होगी

आप तीनो से विनम्र आग्रह और निवेदन हैं कि इस बात को अवश्य ध्यान दे कि क्या आप को मात्र इस लिये अध्यक्ष बनाया गया हैं कि आप महिला हैं या आप को अध्यक्ष इस लिये बनाया गया हैं कि आप सब से काबिल हैं । मेरी नज़र मे आप काबिल हैं और आप बदलाव ला सकती हैं इस लिये बदलाव का पहला कदम नारी पुरुष समानता से शुरू होता हैं । उस पर ध्यान दे । उन पोस्ट और कमेंट्स को हटवाये जहां नारी के चित्रों का प्रयोग हैं । उन पोस्ट्स और कमेंट्स पर निरंतर आपत्ति दर्ज करवाए जहां नारी को पुरुष से कमतर आंका जाता हैं । आप कि आपत्ति जेंडर बायस को ख़तम करने मे सहायक होगी ब्लॉग पर ।

आशा ही नहीं विश्वास भी हैं कि
वंदना से अगर ना होगा ,
रश्मि मे दिखेगा
और
रेखा खीच कर उसको सही किया जायेगा

महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध



पिछले दिनों मैं कानपुर में थी। हफ्तों गुजर जाते थे और वहां के पेपर के मुखपृष्ठ पर कोई राष्ट्रीय समाचार नहीं आता था। सभी मुख्य समाचार अपराधों और खासकर महिला अपराधों से जुड़े होते थे। कई बार ऐसा होता था कि चाय पीते समय पेपर परे सरका देती क्योंकि समाचार पढ़कर और समाचार के ऊपर छपी फोटो देखकर मन कसैला हो जाता। बहुत सारे प्रश्न मन में उमड़ते-घुमड़ते, पर उत्तर नहीं मिलते। क्योंकि अगले वर्ष होने वाले चुनावों के कारण हर घटना को राजनीतिक रंग दे दिया जाता और उसके सामाजिक पहलू अनछुए रह जाते। न ही उन बच्चियों पर होने वाले मानसिक आघात की कोई चर्चा होती।

महिलाओं पर होने वाले यौन अपराधों में तेजी से वृद्धि हुई है। दिल्ली और उत्तर प्रदेश दो ऐसी जगहें हैं जहां महिलाएं खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करती। खासकर किशोरियों और बच्चियों के साथ किया जाने वाला इस तरह का व्यवहार अत्यन्त शर्मनाक है। और उससे भी ज्यादा व्यथित कर देने वाला है इन घटनाओं के प्रति पुरुषों का रवैया। जो यह मानते हैं कि इन घटनाओं में वृद्धि का मूल कारण महिला सशक्तिकरण है। वे यह भी कहते है कि लड़कियों के व्यवहार में जिस तरह का खुलापन आया है, वे छोटे-छोटे कपड़ों में घर से बाहर निकलती हैं जो पुरुषों की काम भावनाओं को भड़काता है और वे उस पर नियंत्रण नहीं रख पाते जिसके कारण इस तरह की घटनाएं घटती हैं। अगर एक बार उनकी बात मान भी ली जाए, तो उत्तर प्रदेश के गांवों में घटने वाली घटनाओं के पीछे क्या कारण हो सकता है। वहां तो लड़कियां छोटे कपड़े नहीं पहनती। और छह माह वह नन्ही सी बच्ची जिसने तो अभी आँखे ही खोली थी, अपने आस-पास के लोगों को अभी वह पहचानना सीख रही थी, वह भी एक नवयुवक की हवस का शिकार बन गई। जो उसको खिलाने के बहाने घर से ले जाता है और.... । एक चार साल की बच्ची घर से स्कूल के लिए निकलती है और 52 साल के स्कूल के चौकीदार की गंदी निगाहों का शिकार हो जाती है....एक पिता अपनी किशोरवय बेटी से सिर्फ इसलिए यौन संबंध बनाता है क्योंकि एक ज्योतिषी जो इस अपराध में उसका बराबर का साझीदार बनता है उससे कहता है कि ऐसा करने से उसका भाग्योदय हो जाएगा....घटनाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। बस इतना ही कहूंगी कि इस तरह की घटनाओं की जो बाढ़ सी आ गई है। उसके न सिर्फ हमें कारण जानने होंगे बल्कि उसके निवारण भी ढूढ़ने होंगे। ताकि हमारी बच्चियां घर के बाहर ही नहीं घर के अंदर भी खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें।

-प्रतिभा.

February 24, 2011

क्या हाऊस वाईफ का कोई अस्तित्व नहीं ?

क्या हाऊस वाईफ का कोई अस्तित्व नहीं ?
क्या उसे financial decision लेने का कोई अधिकार नहीं ?
क्या हाऊस वाईफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर सँभालने के लिए होती हैं ?
क्या हाऊस वाईफ का परिवार , समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य हैं ?
यदि नहीं हैं तो
क्यों ये आजकल के लाइफ insurance , बैंक या mutual fund आदि से फ़ोन पर पूछा जाता हैं कि आप हाऊसवाईफ हैं या वर्किंग ?financial decision तो सर लेते होंगे ?
इस तरह के प्रश्न करके ये लोग हाऊस वाईफ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं कर रहे ?
क्यों आज ये पढ़े लिखे होकर भी ऐसी अनपढ़ों जैसी बात पूछी जाती हैं और सबसे मज़ेदार बात ये कि पूछने वालीभी महिला होती हैं .
क्यूँ उसे पूछते वक्त इतनी शर्म नहीं आती कि महिलाएं वर्किंग हों या हाऊस वाईफ उनका योगदान देश के विकास मेंएक पुरुष से किसी भी तरह कमतर नहीं हैं . जबकि आज सरकार ने भी घरेलू महिलाओं के योगदान को सकलघरेलू उत्पाद में शामिल करने का निर्णय लिया हैं .................अपने त्याग और बलिदान से , प्रेम और सहयोग सेहाऊस वाईफ इतना बड़ा योगदान करती हैं ये बात ये पढ़े लिखे अनपढ़ क्यूँ नहीं समझ पाते ?
आज एक स्वस्थ और खुशहाल समाज इन्ही हाऊस वाईफ की देन हैं यदि ये भी एक ही राह पर निकल पड़ें तोपश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करने में कोई कमी नहीं रहेगी और उसका खामियाजा वो चुका रहे हैं तभी वो भी हमपूरब वालों की तरफ देख रहे हैं और हमारे रास्तों का अनुसरण कर रहे हैं . आज बच्चों की परवरिश और घर कीदेखभाल करके जो हाऊस वाईफ अपना योगदान दे रही हैं वो किसी भी वर्किंग वूमैन से काम नहीं हैं ---------क्याये इतनी सी बात भी इन लोगों को समझ नहीं आती ?

इस पर भी कुछ लोगों को ये नागवार गुजरता है और वो उनके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं ..........पतिऔर पत्नी दोनों शादी के बाद एक इकाई की तरह होते हैं फिर सिर्फ आर्थिक निर्णय लेने की स्थिति में एक को हीमहत्त्व क्यूँ? क्या सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो कमाता है ? ऐसा कई बार होता है कि कोई मुश्किल आये और पति होतो क्या पत्नी उसके इंतज़ार में आर्थिक निर्णय ले ? या फिर पत्नी की हैसियत घर की चारदीवारी तक ही बंद हैजबकि हम देखते हैं कि कितने ही घरों में आज और पहले भी आर्थिक निर्णय महिलाएं ही लेती हैं........पति तो बसपैसा कमाकर लाते हैं और उनके हाथ में रख देते हैं ..........उसके बाद वो जाने कैसे पैसे का इस्तेमाल करना हैजब पति पत्नी को एक दूसरे पर इतना भरोसा होता है तो फिर ये कौन होते हैं एक स्वच्छ और मजबूत रिश्तेमें दरार डालने वाले.............ये कुछ लोगों की मानसिकता क्या दर्शा रही है कि हम आज भी उस युग में जी रहे हैंजहाँ पत्नी सिर्फ प्रयोग की वस्तु थी ............मानती हूँ आज भी काफी हद तक औरतों की ज़िन्दगी में बदलाव नहींआया है तो उसके लिए सिर्फ हाउस वाइफ के लिए ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा जबकि कितनी ही वोर्किंगवुमैन भी आज भी निर्णय नहीं ले पातीं ...........उन्हें सिर्फ कमाने की इजाजत होती है मगर खर्च करने या आर्थिकनिर्णय लेने की नहीं तो फिर क्या अंतर रह गया दोनों की स्थिति में ? फिर ऐसा प्रश्न पूछना कहाँ तक जायज है किनिर्णय कौन लेता है ? और ऐसा प्रश्न क्या घरेलू महिलाओं के अस्तित्व और उनके मन सम्मान पर गहरा प्रहारनहीं है ?


ऐसी कम्पनियों पर लगाम नहीं लगाया जाना चाहिए ..........उन्हें इससे क्या मतलब निर्णय कौन लेता है .........वोतो सिर्फ अपना प्रयोजन बताएं बाकि हर घर की बात अलग होती है कि कौन निर्णय ले ...........ये उनकी समस्या हैचाहे मिलकर लें या अकेले........उन्हें तो इससे फर्क नहीं पड़ेगा ........फिर क्यूँ ऐसे प्रश्न पूछकर घरेलू महिलाओंके अस्तित्व को ही सूली पर लटकाते हैं ?


क्या आप भी ऐसा सोचते हैं कि -----------

घरेलू महिलाएं निर्णय लेने में सक्षम नहीं होतीं?
उन्हें अपने घर में दायरे तक ही सीमित रहना चाहिए?
आर्थिक निर्णय लेना उनके बूते की बात नहीं है ?
जो ये कम्पनियाँ कर रही हैं सही कर रही हैं?
..........

February 23, 2011

समाज

कितनी आसानी से कह दिया जाता है कि औरत ही औरत की दुश्मन है। जबकि पुरुषों द्वारा पुरुषों के प्रति किए अपराधों की संख्या अगिनत है, पर आज तक किसे ने नहीं कहा कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन है क्यो????????

February 18, 2011

विवाह विच्छेद /तलाक और महिला अधिकार

आज मैं आप सभी को जिस विषय में बताने जा रही हूँ उस विषय पर बात करना भारतीय परंपरा में कोई उचित नहीं समझता क्योंकि मनु के अनुसार कन्या एक बार ही दान दी जाती है किन्तु जैसे जैसे समय पलटा वैसे वैसे ये स्थितियां भी परिवर्तित हो गयी .महिलाओं ने इन प्रथाओं के कारण [प्रथाओं ही कहूँगी कुप्रथा नहीं क्योंकि कितने ही घर इन प्रथाओं ने बचाएं भी हैं] बहुत कष्ट भोगा है .हिन्दू व मुस्लिम महिलाओं के अधिकार इस सम्बन्ध में अलग-अलग हैं .
सर्वप्रथम हम मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं.पहले मुस्लिम महिलाओं को तलाक के केवल दो अधिकार प्राप्त थे १-पति की नपुन्संकता,२-परपुरुशगमन का झूठा आरोप[लियन]
किन्तु न्यायिक विवाह-विच्छेद [मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम१९३९]द्वारा मुस्लिम महिलाओं को ९ आधार प्राप्त हो गए हैं:
१-पति की अनुपस्थिति,
२-पत्नी के भरण-पोषण में असफलता,
३-पति को सात साल के कारावास की सजा,
४-दांपत्य दायित्वों के पालन में असफलता,
५-पति की नपुन्संकता,
६-पति का पागलपन,
७-पत्नी द्वारा विवाह की अस्वीकृति[यदि विवाह के समय लड़की १५ वर्ष से काम उम्र की हो तो वह १८ वर्ष की होने से पूर्व विवाह को अस्वीकृत कर सकती है],
८-पति की निर्दयता,
९-मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के अन्य आधार,
ऐसे ही हिन्दू विधि में विवाह विधि संशोधन अधिनियम १९७६ के लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति मज़बूत हुई है और पति द्वारा बहुविवाह व पति द्वारा बलात्कार,गुदा मैथुन अथवा पशुगमन दो और आधार महिलाओं को प्राप्त हो गए हैं जबकि इससे पूर्व ११ आधार पति-पत्नी दोनों को प्राप्त थे.वे आधार हैं;
१-जारता, २-क्रूरता, ३-अभित्याग, ४ -धर्म-परिवर्तन, ५ -मस्तिष्क विकृत्त्ता ,६--कोढ़ ,७-- रतिजन्य रोग ,८-संसार परित्याग, ९--प्रकल्पित मृत्यु ,१० -न्यायिक प्रथक्करण , ११- -दांपत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन की आज्ञप्ति का पालन न करना
इस तरह अब हिन्दू महिलाओं को तलाक के १३ अधिकार प्राप्त है किन्तु जैसा की मैं आपसे पहले भी कह चुकी हूँ कि महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर कोई जागरूकता नहीं है वे घर बचाने के नाम पर पिटती रहती हैं,मरती रहती हैं,सिसक सिसक कर सारी जिंदगी गुज़ार देती हैं यदि एक बार वे पुरुषों को अपनी ताक़त का अहसास करा दें तो शायद इन घटनाओ पर कुछ रोक लग सकती है क्योंकि इससे पुरुषों के निर्दयी रवैय्ये को कुछ चुनौती तो मिलेगी.मैं नहीं चाहती आपका घर टूटे किन्तु मैं महिलाओं को भी टूटते नहीं देख सकती इसीलिए आपको ये जानकारी दे रही हूँ ताकि आपकी हिम्मत बढे और आप अपना और अपनी और बहनों का जीवन प्यार व विश्वास से सजा सकें...

February 16, 2011

क्यों न ऐसा हो?

                                     भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बेटी विदा होकर पति के घर ही जाती है. उसके माँ बाप उसके लालन पालन शिक्षा दीक्षा में उतना ही खर्च करते हैं जितने की लड़के की शिक्षा में , चाहे वह उनका अपना बेटा हो या फिर उनका दामाद . शादी के बाद बेटी परायी हो जाती हैं - ये हमारी मानसिक अवधारणा है और बहू हमारी हो जाती है. हमारी आर्थिक  सोच भी यही रहती है कि कमाने वाली बहू आएगी तो घर में दोहरी कमाई आएगी और उनका जीवन स्तर अच्छा रहेगा. होना भी ऐसा ही चाहिए और शायद माँ बाप आज कल बेटी को  इसी लिए उनके आत्मनिर्भर होने वाली शिक्षा दिलाने का प्रयास करते हैं. वे अपनी बेटी से कोई आशा भी नहीं करते हैं. लेकिन कभी कभी किसी का कोई व्यंग्य सोचने पर मजबूर कर देता है.
          "तुम्हारे बेटा तो कोई है नहीं तो क्या बेटी के घर कि रोटियां तोडोगी? " 
          "तुमने जीवन में कुछ सोचा ही नहीं, सारा कुछ घर के लिए लुटा दिया , अब बुढ़ापे में कौन से तुमको पेंशन मिलनी है कि गुजारा कर लोगे." 
         "मैं तो सोचता हूँ कि ऐसे लोगों का क्या होगा, जीवन भर भाग भाग कर कमाया और बेटी को पढ़ा तो दिया अब कहाँ से शादी करेगा और  कैसे कटेगा इनका बुढ़ापा. "
            बहुत सारे प्रश्न उठा करते हैं, जब चार लोग बैठ कर सामाजिकता पर बात करते हैं. ऐसे ही मेरी एक पुरानी कहानी कि पात्र मेहनतकश माँ बाप की बेटी थी और माँ बाप का ये व्यंग्य कि कौन सा मेरे बेटा बैठा है जो मुझे कमाई खिलायेगा. 
उसने अपनी शादी के प्रस्ताव लाने वालों से पहला सवाल यह किया कि मेरी शादी के बाद मैं अपनी कमाई से इतना पैसा कि मेरे माँ बाप आराम से रह सकें इनको दूँगी. 
          लड़के वालों के लिए ये एक अजीब सा प्रश्न होता और वे उसके निर्णय से सहमत नहीं होते क्योंकि शादी के बाद उसकी पूरी कमाई के हक़दार वे ही होते हैं न. 
           एक सवाल सभी लोगों से यह पूछती हूँ कि अगर माँ बाप ने अपनी बेटी को इस काबिल बना दिया है कि वह कमा कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके तो फिर शादी के बाद वह अपने माँ बाप का भरण पोषण का अधिकार क्यों नहीं रखती है? ऐसे मामले में ससुराल वालों को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए. जिस शिक्षा के बल पर वह आत्मनिर्भर है वह उसके माता पिता ने ही दिलाई है न. फिर उनके आर्थिक रूप से कमजोर होने पर वह अपनी कमाई का हिस्सा माता पिता को क्यों नहीं दे सकती है? बेटे को आपने पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका पूरा पूरा हक़ है और उन्होंने बेटी को पढ़ाया तो उसकी कमाई पर भी आपका ही पूरा पूरा हक़ है. आखिर क्यों? हम अपनी इस मानसिकता से कब मुक्त हो सकेंगे कि बेटी विवाह तक ही माता पिता की देखभाल कर सकती है और उसके बाद वह पराई हो जाती है.

February 12, 2011

एक बेहतरीन पोस्ट

‘एक महिला को पढाओगे तो पूरा परिवार पढेगा।

“ज़रूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाए। उसे आम जनता को ध्यान में रख कर बनाया जाए।”

“ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जो लड़का-लड़कियों को ख़ुद के प्रति उत्तरदायी और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना पैदा करे। लड़कियों के भीतर अनुचित दबावों के खिलाफ़ विद्रोह पैदा हो। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा।”

एक बेहतरीन पोस्ट यहाँ पढे

February 10, 2011

रेखा श्रीवास्तव को बधाई

नारी ब्लॉग कि सदस्या रेखा श्रीवास्तव अब लखनऊ ब्लॉगर असोसिएशन की अध्यक्ष बन गयी हैं । मुझे ख़ुशी होती हैं जब कोई भी महिला ब्लॉगर ब्लोगिंग मे कुछ नया करती हैं । रेखा बधाई की पात्र हैं । मुझे अब ये भी उम्मीद बन गयी हैं कि लखनऊ ब्लॉगर असोसिएशन का मंच अब केवल किसी एक धर्म के प्रचार प्रसार के लिये नहीं इस्तमाल होगा और ना ही नारी को क्या क्या नहीं करना चाहिये इस पर वहाँ अब ज्यादा वाद विवाद होगालखनऊ की सरजमी पर धर्मो मे झगडा नहीं होता हैंलखनऊ की मीठी भाषा और तहजीब जग जाहिर ही हैंलखनऊ की चिकन की कढाई और लखनऊ के मलाई पान विश्व मे प्रसिद्ध हैंरेखा के कार्य काल मे मुझे उम्मीद हैं कि लखनऊ ब्लॉगर असोसिएशन नये मकाम छुयेगी और नये सदस्य इस मे जुड़ सकेगे । नारी ब्लॉग कि जो सदस्या इस संस्था से जुड़ना चाहे यहाँ कमेन्ट देकर रेखा को सूचित कर दे वो आप से संपर्क कर लेगी

रेखा तुमको पुनह बधाई ।

February 09, 2011

"कौन कह सकता है की भारत में मर्दानगी की कमी है"

क्या ये सब महज शब्द और खबरे हैं

"बलत्कार......रेप .......गैंगरेप ........सामूहिक बलात्कार .... यौनशोषण.....अश्लील एम एम एस ...नाबालिग का बलात्कार ....दलित लड़की .... !चलती गाड़ी में ....!"

कल एक ब्लॉग पर पढ़ा कि मीडिया उनके द्वारा भी प्रतिस्पर्धा के चलते टी आर पी में बढ़त हेतु वही सब दिखाया जाने लगा | बासी और फूहड़ द्विअर्थी संवादों वाली कामेडी या ऊपर दिए गए शब्दों वाली न्यूज | अब तो होड़ मची है कौन सा चैनल सबसे ज्यादा इस प्रकार की खबर दिखाए |इन खबरों को दिन भर दिखाए जाने पर छोटे छोटे बच्चो के द्वारा भी ये पूछा जाने लगा है की ये बलात्कार क्या होता है ? कभी कभी तो इन खबरों को देख कर ये वहम भी होने लगा है की हमारे देश में लोगो के पास बलात्कार के सिवाय दूसरा कोइ काम ही नहीं है नेता घोटाला करते है और आम आदमी बलात्कार कर रहा है | कौन कह सकता है की भारत में मर्दानगी की कमी है ,अखबारों में मर्दानगी बढ़ाने वाली दवाओं का विज्ञापन तो केवल छलावा है | न्यूज चैनलों को देख कर तो अब यही लग रहा है की सबसे ज्यादा बलात्कार (Rape) भारत में ही हो रहे है बाकी समूची दुनिया में शांति है |


ब्लॉग पर कमेन्ट किया पर नहीं छपा उसका कोई मलाल नहीं हैं क्युकी ये ब्लॉग मालिक का अधिकार हैं लेकिन ये सोचना कि इन खबरों से हमारा समाज बिगड़ रहा हैं निहायत ही गलत ख्याल हैं । बिगड़े समाज कि तस्वीर भद्दी ही होगी । फिर चाहे अखबार मे आये या टी वी पर ।

रेप को लेकर ये कहना "कौन कह सकता है की भारत में मर्दानगी की कमी है" ना केवल निंद्निये हैं अपितु इस कि जितनी भी भर्त्सना कि जाए वो कम । मर्दानगी का अगर ये स्वरुप हैं तो " छि " हैं ऐसे स्वरुप पर ।

एक १६ साल का लड़का अगर रेप के जुर्म मे पकड़ा जाता हैं तो उसको गलती कह कर जुविनाइल कोर्ट मे भेजा जाता हैं लेकिन एक १६ साल कि लड़की का अगर रेप होता हैं तो उसकी जिन्दगी ख़तम ही हो जाती हैं । वो शारीरिक और मानसिक रूप से कभी एक नोर्मल जिंदगी नहीं जी पाती ।

और इस सब मे हम चिंता करे कि ये खबर चॅनल पर आजाने से हमारे घर का माहोल खराब होता हैं ।

सोच बदलने कि जरुरत हैं , समाज को सुधारने कि जरुरत हैं नाकि खबरों को दबाने कि जरुरत हैं । जरुरत हैं ये समझाने और समझने कि
"बलत्कार......रेप .......गैंगरेप ........सामूहिक बलात्कार .... यौनशोषण.....अश्लील एम एम एस ...नाबालिग का बलात्कार ....दलित लड़की .... !चलती गाड़ी में ....!"
मात्र शब्द नहीं हैं किसी कि जिंदगी नष्ट हो जाती हैं इन शब्दों मे
जरुरत हैं अपने बच्चो को शिक्षित करने कि ख़ास कर उन लडको को जिनकी नज़र मे "बलत्कार......रेप .......गैंगरेप ........सामूहिक बलात्कार .... यौनशोषण.....अश्लील एम एम एस ...नाबालिग का बलात्कार ....दलित लड़की .... !चलती गाड़ी में ....!" मर्दानगी का अहसास करने के लिये और उसको साबित करने के लियेएक हथियार हैं

जो महिला ऐसी पोस्ट पर कमेन्ट करती हैं उनसे बेहतर संवेदनाओ कि अपेक्षा हैं क्युकी कम से कम आप तो समझे जो लिखा जा रहा हैं वो हैं क्या ? शब्दों के जाल मे छुपी सच्चाई को देखिये तो सही ।





चेन ने लूटा चैन !

चेन ने लूटा चैन !

भारतीय नारी का जीवन अनेकों बंधनों से बंधा है.उन्ही बंधनों में से एक बंधन है सोने से जुड़ा उसके सुहाग का जीवन .मंगलसूत्र का सोने का होना नारी का सुहाग बचाता है भले ही उस मंगलसूत्र को बचाने में कोई भी हादसा घट जाये.आये दिन महिलाओं की सोने की चैन लुट रही हैं लेकिन चैन पहनने वाली महिलाओं की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही है.भला सोने की चैन ही अगर सुहाग की रक्षा करती है तो उन महिलाओं के सुहाग की रक्षा कैसे होती है जिनके पति पर उन्हें सोने की चैन पहनाने के पैसे नहीं.इन अंधविश्वासों से भारतीये नारी जितनी जल्दी अपने को दूर हटा लेगी उतनी ही जल्दी विकास की राह पर आगे बढ़ सकेगी.

February 08, 2011

क्या नारी वाकई अबला है?

  आज क्या कहूं मन बहुत क्षुब्ध है कारण वही की आज भी ऐसी महिलाएं हैं जो अपने अधिकारों को जानते हुए भी दुःख सहती हैं और खुद ही रोती रहती हैं.महिलाओं के भाग्य में रोना केवल पुरुष वर्ग ने ही नहीं लिखा बल्कि ये रोना महिलाओं   ने स्वयं भी लिखा है.अब आप ये सोचेंगी की आखिर आज में ये क्या लिखने बैठ गयी?मैं कानून जानती हूँ किन्तु क्या करूँ ऐसे महिला वर्ग को कानून बताकर जो सब कुछ जानकर भी अपने लिए दुःख ही बटोर रहा है.
       मेरे पापा की एक मुवक्किल है जिसकी अभी पिछले वर्ष ही शादी हुई थी.वह धर्म से मुसलमान है और जिसे अपनी शादी से पहले ही पाता था कि उसके पति की एक पत्नी पहले भी है चूंकि इस्लाम धर्म में बहुविवाह का प्रचलन है ऐसे में उसे इससे कोई आपति नहीं थी ये बात उसने मुझे शादी के बाद बताई .शादी के बाद वह मेरे घर मिठाई लेकर भी आयी और बड़ी खुश भी दिखाई दी किन्तु लगभग २-३ महीने बाद से ही पता चला की वह अपने मायके में ही रह रही थी अभी हाल में ही जब वह आयी तो मैने उसके पति के बारे में पूछा तो वह कहने लगी "कि मैंने तो ये सोचा था कि उसका अपनी पहली पत्नी से कोई मतलब नहीं है और हमें बताया भी यही गया था कि वह साथ नहीं रहती है .इस पर भी मुझे उसके रहने पर कोई एतराज़ नहीं है किन्तु उसे मेरी तरफ भी तो कोई ध्यान देना चाहिए."केवल इतनी सी मांग भी उसकी पूरी नहीं होती जबकि इस्लाम में ये साफ-साफ लिखा है कि तुम चार बीवी रख सकते हो किन्तु तुम्हे सबको संतुष्ट रखना होगा.
       उसका पति ये तो चाहता है कि वह वहाँ रहे किन्तु उससे कोई आशा न रखे.वह पूछ रही थी कि मैं क्या करूँ तो माने उसे गुज़ारा भत्ते की बात कही  तो कुछ दिन तो वह नहीं आयी फिर जब आयी तो कहने लगी कि मैं क्या करूँ वह कहता है कि यहाँ आकर रह नहीं तो मैं तेरे खिलाफ रिपोर्ट लिखा दूंगा कि तू घर से जेवर पैसे लेकर भाग गयी है.वह कहने लगी कि आज तक उसने मेरे लिए कोई कपडा नहीं सिलवाया और मेरे भी जो कपडे हैं वह भी नहीं लाने देता इसलिए मैं भी यहाँ से जब जाती हूँ तो अपने कुछ कपडे यहीं छोड़ जाती हूँ.
   इतने पर भी वह अपने पति पर गुजारे भत्ते की वसूली की कार्यवाही के लिए तैयार नहीं है और दिन दिन भर रो रोकर अपनी ऑंखें सुजा रही है.ऐसे में आप ही बताएं कि क्या कानून का कोई फायदा है जब सब कुछ जानकर भी महिलाओं को रोना ही मंजूर है.

February 04, 2011

दूसरा विवाह

            
               विवाह को हम चाहे जरूरत समझें या फिर संस्कार मानव जीवन में इतकी महत्वपूर्ण भूमिका है. इसके साथ ही व्यक्ति के साथ बहुत से दायित्व और कर्त्तव्य भी जुड़ जाते हैं. दो व्यक्तियों को एक दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्व भी निभाने पड़ते हैं. इसके बाद कुछ नए लोगों से नए रिश्तों का निर्माण होता है और व्यक्ति का सामाजिक दायरा भी बढ़ जाता है. विवाह मात्र एक नए व्यक्ति का अपने घर में शामिल होना ही नहीं है बल्कि उसके परिवार को भी अपने से जोड़ने कि प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है.
                                  प्रथम विवाह तो एक सुखद घटना के रूप में ही ली जाती है लेकिन दूसरा विवाह एक दुखद घटना के घटित होने के बाद ही संभव होता है. वह दुखद घटना जीवनसाथी का निधन या फिर तलाक कुछ भी हो सकता है. प्रथम से दूसरे विवाह की राह बहुत कठिन होती है . वह चाहे पत्नी हो या फिर पति  - दोनों को  ही सामान्य विवाह से अधिक अपेक्षाएं और दायित्व  मिलते हैं और इसके लिए दोनों को ही पहले शारीरिक रूप से कम लेकिन मानसिक रूप से ज्यादा तैयार होने पर ही दूसरे विवाह का निर्णय लेना चाहिए. पत्नी के लिए पति के पूर्व पत्नी से जुडी यादों का सामना भी करना पड़ सकता है. इसके लिए मानसिक परिपक्वता बहुत ही आवश्यक है क्योंकि दोनों ही शेष जीवन सुख पूर्वक जीने के लिए विवाह करने जा रहे होते हैं और अगर इस विवाह से उनको वही न मिल सके तो फिर उनका शेष जीवन नरक भी बन सकता है. अपेक्षाएं कभी अकेली नहीं होती बल्कि उसके साथ दायित्वों और कर्तव्यों का साथ भी होता है. इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए.
                            दूसरा विवाह अभी पुरुष के लिए अधिक आसान है, यद्यपि अब स्त्री के लिए भी सोच लचीली हो रही है किन्तु फिर भी पुरुष को निर्बाध रूप से करने का अधिकार समाज ने दे रखा है. जब की स्त्री अगर विधवा या परित्यक्ता है तो उसके लिए पुरुष निश्चित रूप से विधुर या तलाकशुदा ही शादी करने के लिए तैयार होगा. कोई भी माँ  बाप अपनी बेटी की शादी अपनी परिस्थिति के अनुसार विधुर या तलाकशुदा के साथ कर सकते हैं किन्तु बेटे के माता पिता  अपने अविवाहित पुत्र के लिए विधवा या परित्यक्ता से विवाह के लिए कभी भी तैयार नहीं होंगे. वैसे ये नियमावली सिर्फ मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए ही बनी है. उच्च स्तरीय परिवारों में ऐसे कोई बंधन नहीं है चाहे स्त्री हो या फिर पुरुष उनके लिए एक, दो तीन या फिर चार विवाह भी कोई बड़ी बात नहीं है. कभी कभी तो विवाह और तलाक के बीच सिर्फ महीनों का अंतर होता है.
                            दूसरे विवाह में भी दोनों ही पक्ष एक संशय की स्थिति से गुजरते रहते हैं क्योंकि अगर पूर्व पत्नी की मृत्यु हुई है तो लड़की के स्वयं या फिर उसके घर वालों के मन में एक संशय रहता है कि उसकी मृत्यु स्वाभाविक थी या फिर किसी और कारण से हुई. यही स्थिति तलाकशुदा होने पर भी होती है. ये आवश्यक नहीं कि तलाक लेने के लिए हमेशा पुरुष ही दोषी हो, कभी कभी स्त्री भी घर और पति के साथ सामंजस्य न बिठा पाने या फिर अपने ऊँचे ऊँचे सपनों के टूटने से तलाक ले लेती हैं. लेकिन संशय दोनों को ही रहता है कि तलाक पत्नी के कारण हुआ है या फिर पति या उसके घर वालों के कारण से. लड़का पक्ष अगर निर्दोष है तो उसको ये संशय रहता है कि कहीं ये लड़की भी पहली की तरह से न हो. कई बार तो दूसरी पत्नी इस बात का फायदा भी उठती है कि वह घर वालों को ब्लैकमेल करने लगती है और वे उसकी हर मांग अपनी इज्जत बनाये रखने के लिए स्वीकार कर लेते हैं. पत्नी के मृत्यु के सम्बन्ध में मुझे एक वाकया  याद है मेरे बचपन में एक परिचित परिवार में बड़े बेटे के तीन पत्नियों को जला कर मार दिया और लोग चौथी बार भी आकर शादी कर गए. ये सोचने की जरूरत नहीं समझी कि पहली पत्नियाँ कैसे और क्यों जलीं? ये संशय लड़की के मन में बहुत रहता है वह बात और है कि वह उस परिवार से पहले से परिचित हो.
                      ये घटना मेरे घर की ही है. मेरी चाची जी अपनी दूसरी संतान के जन्म के समय चल बसी. छोटी बेटी बहुत छोटी थी. उसको रखने की समस्या थी. कुछ समय तो घर में रख ली गयी लेकिन फिर चाचा जी से कहा गया कि वे दूसरी शादी कर लें बच्चियों को देखने के लिए माँ की ही जरूरत होती है. चाचा जी बेमन से इसके लिए तैयार हुए. वे एक विशेष क्षेत्र में वैज्ञानिक थे और फिर चाची के मरते ही रिश्ते आने शुरू हो गए. पहली चाची बहुत खूबसूरत थी लेकिन दूसरी वाली उतनी सुंदर न थी. चाचा का व्यवहार उनके प्रति न्यायपूर्ण न रहा. वे हर बात में पहली पत्नी से तुलना करने लगते . चाची ने आकर बेटियों को भी संभाल लिया. उनकी पोस्टिंग नैनीताल में थी. कभी चाची कहती कि चलिए यहाँ घूमने चलें तो चाचा का उत्तर होता - 'मैं मधु के साथ सब घूम चुका हूँ, तुम लड़कियों के साथ चली जाओ.' उनका यह उत्तर न्यायसंगत न था. क्योंकि उनकी दूसरी शादी हो सकती है लेकिन उस लड़की की तो पहली ही शादी है और अपने अरमानों को पूरा करने के लिए वह आपसे ही अपेक्षा करेगी. वह इसके लिए किसी और का सहारा नहीं लेगी. ये मेरे घर की घटना थी तो बहुत दिन सोचने के बाद ही लिख पायी हूँ लेकिन मुझे मेरे चाचा हमेशा ही गलत लगे. पूर्ण न्याय तो वे नहीं कर पाए बल्कि अपनी बेटियों को भी कभी माँ की तरह से इज्जत देने की बात नहीं कर पाए. अगर आप मानसिक तौर पर तैयार न हों तो किसी भी लड़की के जीवन को बर्बाद करने का आपको कोई भी अधिकार नहीं . वो कोई आया नहीं है कि जब आपके बच्चों को परवरिश की जरूरत थी तो आपने शादी कर ली और फिर उसको वो हक़ नहीं दे पाए जो पहली पत्नी को दिया था. किसी भी व्यक्ति के लिए ये अनुरोध है कि अगर आप नहीं तैयार हैं तो किसी को व्यथित करने के लिए विवाह बंधन में बात बंधिये . घर वालों के दबाव में भी नहीं.
                                            ऐसा सिर्फ स्त्री के साथ होता हो ऐसा नहीं है दूसरा पक्ष भी उत्पीड़न का शिकार हो सकता है उसका स्वरूप अलग होता है. आप दूसरा विवाह अपने बच्चों को माँ के साए में रखने के लिए करते हैं और फिर खुद उनके दायित्वों से मुक्त होना चाहते हैं. लेकिन दूसरी पत्नी को आपके बच्चे फूटी आँखों नहीं सुहाते है. आपकी अनुपस्थिति में वह गलत व्यवहार कर सकती है और आते ही आपको उनके खिलाफ भड़का भी सकती है. इस स्थिति में माँ दूसरी तो बाप तीसरा होने वाली कहावत सिद्ध हो जाती है. बच्चे कहीं के भी नहीं रहते हैं. ऐसी स्थिति में पुरुषों से अनुरोध है कि आप विवेक से काम लें और दोनों के साथ सामंजस्य बैठा कर काम करें. दोनों को बराबर महत्व लें. सिर्फ एक पक्ष की बात न सुने. दोनों को बराबर सुने और बच्चों को अपनी बात एकांत में कहने दें. न्याय आपको ही करना है नहीं तो घर से उपेक्षित बच्चे भटक जायेंगे और कभी कभी तो वे अपराध की दिशा में भी उन्मुख हो सकते हैं. फिर उनके पतन के लिए आप ही सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार होंगे. 
                                             अगर आप स्त्री हैं तो दूसरे विवाह के बारे में सब कुछ जानकर ही निर्णय लें क्योंकि उस व्यक्ति के पास पहले से बच्चे होंगे और उन बच्चों की माँ का घर भी होगा. जिन लोगों ने अपनी बेटी खोयी है उसके बच्चों में उनका अंश शेष है और वे उनके प्रति चिंतित होंगे स्वाभाविक है. आपको अपने सारे दायित्वों के बारे में सोच कर ही इसके लिए सहमत होना चाहिए कि आप क्या दो परिवारों के साथ न्याय कर पाएंगी. इस स्थिति में आप के दो मायके होंगे और दोनों के रिश्ते भी दोहरे हो जाते हैं. उनको निभाना आपका नैतिक दायित्व बनता है. क्या बच्चों को आप माँ का प्यार दे पाएंगी . अगर आपकी आत्मा इसके लिए सहमत है तो फिर कोई बात नहीं है अगर सहमत नहीं है तो आप बिल्कुल इनकार कर सकती हैं. किसी के जीवन को नरक बनाने से अच्छा है कि उसको अकेले ही रहने दिया जाय. अगर आप दूसरे की खोई हुई बेटी का प्यार वापस दे सकती हैं तो फिर आप दोहरा प्यार पाएंगी भी. जीवन हमेशा एक दूसरे से जुड़ कर बनता है और दोनों  की ख़ुशी और गम अपना कर एक सुखी संसार बना सकती हैं. 
                                      यहाँ मैं अपनी एक सहकर्मी का उदाहरण देना चाहूंगी. उनकी शादी जिस समय हुई वे है स्कूल में पढ़ रही थी और ३ माह के बेटे की माँ बन कर आयीं थी. बच्चे के साथ उन्होंने एम ए तक की शिक्षा पूर्ण की और हमारे साथ कई वर्षों तक काम करने के बाद भी हमें यह मालूम नहीं था की बड़ा बेटा उनका अपना बेटा नहीं है.उसके बाद उनके अपने दो बेटे और एक बेटी भी थे.  बहुत साल बाद उनकी एक पड़ोसन ने ये बात हमें बतलाई. वे अपने दोनों मायकों को बराबर से मान देती , एक बार पहले मायके जाकर रक्षाबंधन मानती तो दूसरी बार अपने यहाँ. अपने बड़े बेटे की शादी में उन्होंने अपनी दोनों माँओं से हमारा परिचय कराया. मुझे फख्र है की ऐसी महिला भी हैं जिनका उदाहरण दिया जा सकता है. 
                               इस विषय को उठाने का मेरा मंतव्य सिर्फ ये है कि दूसरा विवाह एक बहुत बड़ा निर्णय है , इसका निर्णय लेना तो आसान है लेकिन उससे जुड़े दायित्वों और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने को हमेशा मानसिक रूप से तैयार रखना होगा. तभी ये एक सुखद परिणति हो सकती है. स्वयं भी एक अच्छा जीवन जियें और दूसरे को भी जीने का अवसर दें. 

औरत इंसान ही हैं बशर्ते की वो ये भूल जाये की वो औरत हैं ?

जब तक लडकियां पढाई करने के बाद आत्मनिर्भर होने के लिये नौकरी नहीं करेगी यानी जब तक वो अपने को आर्थिक रूप से सक्षम नहीं बनाएगी तब तक ये मुग्धा जैसी कहानिया पढने को मिलती रहेगी । शादी को अपनी नियति मानना और वंश को आगे बढने का साधन मात्र ही नारी कि नियति हैं और सुखी रहने का कारण भी अगर ये सच हैं तो उसी मे अपनी ख़ुशी खोजे ।


ये भी देखे आप समाज को क्या दे रहे हैं ।

आप ने समाज को क्या दिया ?? एक घुटन भरी औरत जो केवल रोती हैं और बार बार अहसान दिखती हैं उन पर जिनके लिये कुछ भीकरती हैंलेकिन जब भी समानता कि बात करो वो कहती हैं नहीं "वो खुश हैं " बलिदान दे करअगर ऐसा हैं तो वो रोती क्यूँ हैं परेशान क्यूँहैं ??

कल अंशुमाला की पोस्ट पढ़ी और जील कि दोनों पोस्ट पढी , इस से पहले मार्च २००८ मे भी इसी प्रकार कि पोस्ट आयी थी चोखेर बाली पर
इनसान बनने से पहले औरत का अफसाना कैसे बन गया !!और उस पर एक कमेन्ट दिया था जिस को आज नारी ब्लॉग पर फिर पेस्ट कर रही हूँ कुछ संशोधन के साथ

आप की तीनो पोस्ट पढी और उस घुटन को शब्दों मे कलमबध देखा जिस आपने नित्य प्रतिदिन अपने जीवन मे महसूस किया । आप के लेखन की तारीफ़ मे आये सब कमेंट्स भी पढे जिन से ये पता लगा की आप की घुटन को सब समझ रहे हैं ? आप के अन्तिम पैराग्राफ को पुनेह लिख रहीं हूँ और कुछ जानना भी चाहती हूँ

"मेरे पास जो है वो पूरा नही है इसलिए जो कुछ मैं लिख रही हूँ वह आपको रुक कर टुकड़ों को जोड़ कर पढना पड़ेगा।जब मुझे ही कुछ पूरा नही मिला तो आपको पढने के लिए एक पूरी सुविधाजनक कथा कैसे दे सकती हूँ !"


आप कहती है आप को कुछ पूरा नहीं मिला , मेरा प्रश्न है पूरे की परिभाषा क्या हैं ?

नहीं मिला ? क्या नहीं मिला ? इश्वर ने आप को माता पिता दिये , माता पिता ने आप को सक्षम बनाया , विवाह किया , सामाजिक रूप से आप सुरक्षित हैं और आर्थिक रूप से आप स्वतंत्र भी है । और" मिलने" की परिभाषा मे क्या आता है ?? सब कुछ इतने सुविधा जनक तरीके से मिला हैं आप को फिर भी आप को समाज को एक सुविधा जनक कथा नहीं दे सकी ?? क्यों ??

और " मिलने " मे जो भी आता है उसे आप को "मिलना " क्यों चाहीये ? क्या उसे अर्जित नहीं करना चाहिये था आप को ?

आपके घराने की अन्य सद्स्याओ से भी , और आप से भी मै जानना चाहती हूँ की वो इस घुटन से निकालने के लिये क्या करती है ? क्या लेख लिख लिख कर आप " चेतना " जागृत कर रही हैं ? क्या आप को लगता है ऐसे लेखो को पढ़ कर " औरतो का अफसाना " इंसान की कहानी बन सकेगा ?

औरत इंसान ही हैं बशर्ते की वो ये भूल जाये की वो औरत हैं ?
भूल जाये की धूप मे उसकी चमडी काली हो जायेगी ।
याद रखे कि
पिता केवल उसका जनक हैं उसको दान करने का अधिकारी नहीं ,
पति उसका जीवन साथी हैं संरक्षक नहीं ,
पुत्र उसकी संतान है बुदापे की आस नहीं ।

जब तक आप के घराने की सदस्यों को ये याद रहेगा की वह औरत के आगे कुछ नहीं हैं उनके पास ऐसी एक नहीं लाखो कहानिया होगी जहां उन्हे महसूस होगा की वो बेगार की मजदूर हैं ।

आजाद देश मे अगर आप ख़ुद बंधुआ मजदूर की तरह रहेगे और उम्मीद करेगे की आप अपनी " सुविधा से " "कलम" से "शब्दों " के ताने बाने बुनते रहें और कोई आप को इस "बेगारी " से "स्वतंत्रता " दे जाये तों आप के घराने के सदस्य बहुत ज्यादा की उम्मीद कर रहे हैं ।


"चोखेर बाली/ नारी " वह हैं जो सांचे को तोड़ कर जिन्दगी को जीती हैं । "चोखेर बाली/ नारी " वह कभी नहीं हो सकती जो एक सांचे मे बंधी रह कर घुटती है और अपनी घुटन से समाज के पर्यावरण को दूषित करती है ।

February 01, 2011

द्वन्द एक पश्चिम की नारी और एक भारतीय माँ

                                        

                  बात आज से सात साल पहले की है मेरी एक मित्र को गर्दन में बार बार दर्द होता था अक्सर हमें गलत तरीके से सोने या तकियों की वजह से हो जाता है वैसा ही, वो फिजियो थेरेपिस्ट के पास जा कर उसकी सिकाई करवाने लगी साथ ही उसकी बताई कसरत भी करने लगाई | जो बीमारी ये सब करने के बाद दस दिन में ही ठीक हो जानी चाहिए थी वो महीने भर तक ठीक नहीं हुई फिजियो थेरेपिस्ट थोडा शंकित होने लगा बोला आप का पुरा चेकअप करता हु और जैसे वो हथोडी से शरीर के कुछ खास बिन्दुओ पर मार मार कर चेकअप करते है करने लगा फिर बोला आप काफी हाइपर है क्या अक्सर आप को शारीरिक रूप से परेशानी होती है | तो मेरी मित्र ने बताया की नहीं वो काफी शांत स्वभाव की थी किन्तु तीन साल के बच्चे के कारण अभी थोड़ी चिडचिडापन आ गया है हा थोड़ी शारीरिक परेशानी अभी एक साल से हो रही है | डाक्टर ने कहा नहीं बात सिर्फ यही नहीं है आप क्या काम करती है उसने कहा फिलहाल कुछ नहीं बच्चे के कारण तीन साल से छोड़ दिया है पहले करती थी |  वो इंटीरियर डिजाइनर थी और आठ साल उसने ये काम किया और बच्चे होने के बाद छोड़ दिया | डाक्टर ने कहा की आप फिर से काम शुरू कर सकती है तो करे आप की समस्या मानसिक ज्यादा है शारीरिक कम | उसने घर आ कर मुझे ये बताया हमने मिल कर सौ खरी खोटी उस डाक्टर को सुनाई की फिजियो हो कर वो हमें मनोवैज्ञानिको की तरह सलाह दे रहा है इलाज नहीं कर सका तो बहाना मार रहा है | फिर भी मैंने अपने सहेली से कहा की अब तो बच्चा स्कुल जाता है तुम घर में ही एक दो काम क्यों नहीं ले लेती तुम्हारी बिल्डिंग में ही कई लोग घर रिन्यू करा रहे है उनसे बात करो और कुछ करो | एक साल बाद ही वो घर बैठ कर अपना काम करने लगी जितना समय मिलता बस उतना ही काम लेती और आराम से घर और अपना कैरियर संभालने लगी | साल भर बाद आ कर मुझसे कहने लगी की जानती हो उस फिजियो ने शायद सही कहा था, मेरी समस्या शारीरिक कम मानसिक ज्यादा थी अब मुझे बार बार वह गर्दन की समस्या नहीं होती है और मेरा चिड़चिड़ापन भी चला गया जो मै बच्चे के कारण समझती थी |
                         
                                 आप को भी सुन कर थोडा आश्चर्य होगा किन्तु ये सच है ये समस्या केवल मेरी मित्र की नहीं है बल्कि भारत की उन लाखो महिलाओ की है जो योग्यता और इच्छा होने के बाद भी परिवार बच्चे के लिए अपना काम बंद कर देती है | कुछ महिलाए है जो बच्चो को परिवार के अन्य सदस्यों के पास छोड़ कर या आया के पास छोड़ कर अपना काम जारी रखती है किन्तु कुछ है जो अपने बच्चो को दूसरो के भरोसे नहीं छोड़ना चाहती और खुद ही अपना कैरियर त्याग देती है | ऐसा नहीं है की वो घुट कर जी रही है या परिवार का दबाव है, वो खुद अपनी इच्छा से ये करती है किन्तु बच्चे के बड़े होने के साथ ही जब उन्हें थोडा समय मिलने लगता है तो उनके अंदर एक खीज एक गुस्सा धीरे धीरे पनपने लगता है अपने ही उस फैसले के खिलाफ जो उन्होंने अपनी ख़ुशी से लिया है  जिसको ज्यादातर महिलाए पहचान ही नहीं पाती है | बार बार  शारीरिक समस्या होना बात बात पर चिढाना हर बात को दिल से लेना कभी कभी गुमसुम हो जाना दूसरो पर चीखने चिल्लाने लगाना हर किसी को सक की नजर से देखना जैसे अनेक लक्षण सामने आते है इस अंदरूनी खीज और दर्द के कारण  | ये समस्या उनमे ज्यादा होती है जिनके लिए काम उनका जूनून होता है 9 से ५ का नौकरी नहीं या जिन्होंने अपने काम के लिए विशेस योग्यता पाने के लिए खासी मेहनत की हो खूब पढाई की हो जैसे डाक्टर, इंजीनयर, आर्किटेक, वकील, अनेक है | काम के प्रति जुनून होने और मेहनत से पाई योग्यता जब बेकार जाती है तो अंदर ही अंदर एक दर्द पलने लगता है जिसे वो खुद ही नजर अंदाज करती चलती है |
             
                                                                       मै कॉलेज में थी तो मेरी राजनीति शास्त्र की लेक्चरर ने एक बात कही थी |  ३४ की उम्र में उनका विवाह हुआ और ३५ में बच्चे , जे एन यु से गोल्ड मेडलिस्ट पीएच डी ,  लम्बा ना छोड़ने लायक कैरियर पर बच्चे की चिंता, इन सब के बीच जब वो हमें पढ़ाने आई तो बोली की रोज यहाँ आने से पहले मुझे खुद से एक युद्ध लड़ना पड़ता है युद्ध होता है एक पश्चिम की नारी और एक भारतीय माँ के बीच, मै दोनों को ही हारता नहीं देखना चाहती है और दोनों ही अपनी जगह सही है ,या तो दोनों रोज थोडा थोडा हारेंगी या ये रोज का द्वन्द एक दिन किसी एक की मौत के साथ बंद होगा | यही कारण है की ये समस्या एक भारतीय माँ के लिए बड़ी हो जाती है वो एक पश्चिम की नारी ( इसका अर्थ यहाँ नारी के अस्तित्व की पहचान बनाने से है ) तो बन गई है पर उसके अंदर की एक भारतीय माँ कही नहीं गई है और वो अपने बच्चे और परिवार को भी उतना ही या कहु थोडा ज्यादा महत्व देती है और जिंदगी एक मोड़ पर उसे दो में से एक चीज चुनने के लिए कह देती है | बच्चा और परिवार उसके लिए साँस लेने जैसा है तो उसका काम और कैरियर उसके लिए जीवन में पानी जैसा है और जीवन के एक मुकाम पर आ कर उन्हें दोनों में से एक चुनना पड़ता है | यानी उस महिला की मौत निश्चित है साँस लेना छोड़ा तो अभी मर जाएगी पानी छोड़ा तो कुछ दिन बाद मर जाएगी | माँ का अस्तित्व या खुद का अस्तित्व दोनों में से एक की मृत्यु तो होगी है |
                        

                      
                                                                        कुछ महिलाए खुशनसीब होती है जिन्हें घर से काम करने का या समय मिलने पर ही काम करने का या अपने  ही काम को एक अलग  रूप में करने का मौका मिल जाता है | जैसे मैंने बताया मेरी मित्र को मिला गया उसी तरह कुछ कंपनिया भी महिलाओ को काम देती है जो वो घर पर ही रह कर पुरा कर दे सकती है और इस तरह के काफी काम भी है जो महिलाए छोटे रूप में घर से ही समय मिलने के अनुसार कर सकती है , इसी कड़ी में मै और मेरी जैसी कई महिला ब्लोगर हैं जिन्हें ब्लॉग द्वारा बड़ी आसानी से घर बैठे लेखन की भूख मिटाने का मौका मिल गया किन्तु कुछ महिलाए ऐसी खुशनसीब नहीं होती है और उन्हें हमेसा के लिए अपने कैरियर, काम, अस्तित्व की तिलांजलि देनी पड़ती है अपने परिवार और बच्चो की ख़ुशी के लिए | सोचिये उनके मन में ये द्वन्द कितना भयानक होगा और वो किस किस रूप में बाहर आता होगा पर वो स्वयं भी इसको नहीं पहचान पाती और ना हममें से ज्यादातर उनकी समस्या को समझने का प्रयास करते है और ना ही उनकी कोई मदद करते है |
                         
                                                              ऐसे में कई बार महिलाए खुद को किसी और काम में व्यस्त करके या कुछ और शौक पाल कर अपना ध्यान बटाने का प्रयास करती है, कुछ इसमे सफल हो जाती है किन्तु कुछ सिर्फ मन बहलावे तक ही सिमित रहती है और अंदर ही अंदर परेशान रहती हैं | दूसरे क्षेत्रो में मिली सफलता भी उनके अंदर के दर्द को कम नहीं करता है और वो किसी ना किसी रूप में बाहर आता रहता है | कुछ है जो उनके दर्द को समझ सकते है और उन्हें सहजता से लेते है किन्तु ज्यादातर उन्हें नहीं समझ पाते है और उन्हें गलत समझ उनकी पीड़ा को और बढ़ा देते है |

                                             

नारी ब्लॉग के सदस्यों से आग्रह हैं कि इस ब्लॉग पर अपनी सक्रियता बढाए और हफ्ते मे एक पोस्ट देने का कष्ट करे ।

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